18 जून की तारीख राष्ट्र के लिए एक वीर अबला नारी के बलिदान दिवस का दिन हैं
(JYOTIKAN.COM) बुन्देलखण्ड की माटी के कण कण में रानी लक्ष्मीबाई की महागाथा संचित हैं।उनका नाम भारतीय इतिहास के दैदीप्यमान नक्षत्र में प्रमुखता से लिया जाता हैं।राष्ट्रीय स्वाधीनता युद्ध की बलिवेदी में झाँसी की रानी का नाम दहकते अँगारे जैसा है, जिसके तपन सें ब्रिटिश साम्राज्य के पौरुष का लहू सूख गया था।उनका बलिदान राष्ट्रवासियों के लिए गर्व का विषय हैं।स्वतंत्रता संग्राम में राष्ट्र की अस्मिता के रक्षा हेतु किसी नारी का योगदान बहुत कम रहा हैं,किन्तु गर्वीले भारत ने क्रांतिपुत्री रानी लक्ष्मीबाई जैसी नारीशक्ति का पराक्रम देख भाव विभोर हुआ है।आज भी लोग कवयित्री सुभद्राकुमारी चौहान की कालजयी काव्यरचना बोलकर रानी की वीरता को याद करते हैं।
‘बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो,झाँसी वाली रानी थी।।
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की प्रमुख विप्लवकारी थी।उनका जन्म कार्तिक बुदि चतुदर्शी विक्रम संवत 1891 को वाराणसी में हुआ।अंग्रेजी कलेंडर के अनुसार उनकी जन्मतिथि 19 नवम्बर 1835 ईस्वी हैं।उनके पिता मोरोपंत ताम्बे एवं माता का नाम भागीरथी बाई था।उनके बचपन का नाम मनु बाई (मणिकर्णिका)था।रानी लक्ष्मीबाई की मात्र चार वर्ष की आयु में उनकी माता स्वर्गवासी हो गयी।अतः उसकी शिक्षा-दीक्षा पिता ने ही की।भागीरथी की मृत्यु के बाद मनुबाई को मोरोपन्त बिठूर ले गये, जहाँ उसे तात्यां टोपे और नाना साहब के साथ शास्त्रों और अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा भी दी गयी।बिठूर में पेशवा बाजीराव का निवास स्थान था,जहाँ उन्हें अंग्रेज पेंशन देते थे।बिठूर में रानी लक्ष्मीबाई को छबीली के नाम से बोला जाता था। 13 वर्ष की आयु में छबीली का विवाह झाँसी के शासक गंगाधर राव नोवलकर के साथ हुआ। जहां झाँसी की रानी को लक्ष्मीबाई का नाम दिया गया। 1851 ईस्वी में रानी लक्ष्मीबाई से एक पुत्र ने जन्म लिया,किन्तु तीन माह पश्चात वह अकाल मृत्यु को प्राप्त हुआ।उत्तराधिकारी की चिंता एवं खराब स्वास्थ्य के कारण गंगाधर राव ने दामोदर राव को दत्तक पुत्र लेकर उत्तराधिकारी घोषित किया,किन्तु इस वारिस को ब्रितानी अधिकारियों ने अस्वीकृत कर दिया।इसी बीच 20 नवम्बर 1853 ईस्वी में गंगाधर राव की मृत्यु हो गयी।दत्तक पुत्र को वारिस न मानने से अंग्रेजों ने इनकार कर दिया तथा मार्च 1854 ई. में रानी लक्ष्मीबाई को झाँसी के किले से निकलने का आदेश दिया।अतः लक्ष्मीबाई दुर्ग छोड़कर रानीमहल चली गयी।
उस समय भारत वर्ष ब्रिटिश साम्राज्य के अत्याचारों से त्रस्त था।सर्वप्रथम 1857 की महान क्रांति का शंखनाद मंगल पांडे ने किया था।इनके मृत्युदण्ड के पश्चात क्रांति आगे बढ़ती चली गयी।मेरठ और कानपुर में बाग़ियों ने विप्लव का विराट स्वरूप दिखाया।इसका प्रचण्ड रूप झाँसी में भी दिखा।बाग़ियों ने झाँसी में अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया।अनियंत्रित स्थिति को देखकर सागर के कमिश्नर ने रानी लक्ष्मीबाई को झाँसी का शासन सौंप दिया।इसी मध्य सदाशिव राव ने झाँसी के करेरा दुर्ग पर अधिकार कर खुद को झाँसी का राजा घोषित कर दिया।रानी लक्ष्मीबाई ने सदाशिव राव को परास्त करके उसकी महत्वकांक्षा को मार गिराया।बागी सागर सिंह झाँसी के आस पास के क्षेत्रों का दस्यु था,रानी लक्ष्मीबाई ने लूटपाट को रोकने के लिए उसे अपनी ओर करके सैन्य-शक्ति बढ़ाई।झाँसी की अव्यवस्था का लाभ उठाकर टीकमगढ़ ओरझा के दीवान नत्थे खां ने वहां पर हमला बोल दिया,किन्तु रणचातुर्य की धनी लक्ष्मीबाई ने उसे बुरी तरह हराया।इन युद्ध गतिविधियों से अंग्रेज क्रुद्ध हो गए।जनरल ह्यूरोज के नेतृत्व में अंग्रेजों ने मार्च 1858 ईस्वी में झाँसी के किले को घेर लिया।मजबूत क़िले के कारण ह्यूरोज के सारे प्रयास विफल हो गये।झाँसी के तोपची गुलाम गोस खां ने तोपों की गोलाबारी से अँग्रेजों को तीतर-बितर कर दिया।रानी लक्ष्मीबाई के प्रमुख सहयोगी में सुंदर,मुंदर,मोतीबाई और झलकारी बाई थी।उनकी सेना में महिला शाखा अलग से स्थापित थी।किसी द्रोही के दुर्ग द्वार खोले जाने से अंग्रेज किले के अंदर घुस गये।हार को देखकर रानी लक्ष्मीबाई अपने दत्तक पुत्र को पीठ पर बाँधकर कालपी की ओर प्रस्थान कर गयी।अंत मे झाँसी पर सर ह्यूरोज का अधिकार हो गया।कालपी में रानी लक्ष्मीबाई पेशवा और तात्यां टोपे से मिली।ह्यूरोज भी सेना लेकर कालपी आ पहुँचा,जहाँ पेशवा की सम्मिलित सेना और ह्यूरोज में युद्ध हुआ।इसमें अंग्रेजों का पलड़ा भारी रहा।यहाँ से रानी लक्ष्मीबाई क्रांतिकारियों के साथ ग्वालियर पहुँची। जियाजीराव सिंधिया ने अंतिम समय मे अंग्रेजों का साथ दिया।ग्वालियर के सिंधिया और उनके समर्थको ने क्रांति से मुँह मोड़कर सर ह्यूरोज के सहयोगी बन गये। 17 जून 1858 ईस्वी के दिन ह्यूरोज और स्मिथ ने सेना के साथ ग्वालियर पर आक्रमण कर लिया।लक्ष्मीबाई ने अपने दत्तक पुत्र को रामचन्द्र देशमुख को सौंपकर सुरक्षित स्थान पर पहुँचा दिया।18 जून 1858 ईस्वी के दिन ग्वालियर में रानी लक्ष्मीबाई क्रांतिकारियों के साथ गोरों के विरुद्ध अंतिम युद्ध किया।रणचंडी अवतार में रानी ने बड़ा पराक्रम दिखाया। दुर्ग की दीवार को पार करने से रानी का घोड़ा झिझक गया।इसका लाभ उठाकर गोरों ने रानी लक्ष्मीबाई पर प्राणघातक प्रहार किए।उनके सिर पर हुए भीषण घाव से उनके प्राण उखड़ गये।गुल मुहम्मद ने उनके मृत शरीर को युद्धभूमि से सुरक्षित बाहर लेकर आ गया।इस प्रकार रानी लक्ष्मीबाई की जीवनगाथा जन जन में अमर हो गयी।
रानी लक्ष्मीबाई के उत्सर्ग दिवस पर राष्ट्र उन्हें नमन करें,यहीँ उनकी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
मनु प्रताप सिंह चींचडौली,खेतड़ी