संपादकीय: बच्चों में संस्कार क्यों लुप्त होते जा रहे हैं ! || वीरेश शांडिल्य की कलम से खरी-खरी

संपादकीय…

बच्चों में संस्कार क्यों लुप्त होते जा रहे हैं !

वीरेश शांडिल्य की कलम से खरी-खरी

क्या इस भारत में पश्चिम सभ्यता भारी पड़ती जा रही है क्या सनातन संस्कृति धीरे धीरे लुप्त होती जा रही है, क्या हमें अपनी संस्कृति को बचाने के लिए आगे नहीं आना चाहिए, क्या हमारे वर्तमान की जो जनरेशन है, भविष्य है, युवा पीढ़ी है कहीं न कहीं इनमें संस्कार नाम की चीज लुप्त होती जा रही है अधिकतर युवा पीढ़ी मोबाइल में उलझकर रह गई है और मोबाइल की बहुत सी साईटें तो ऐसी है जो हमारी भारतीय संस्कृति को तार-तार कर रही है, देश के युवा वर्ग को पथ भ्रमित कर रही हैं आज का युवा अपनी उम्र से पहले ही जवान हो रहा है उसे यह नहीं पता कि संस्कार क्या होते हैं, माता पिता का सम्मान क्या होता है, छोटे-बड़े की इज्जत कैसे करनी है, रिश्तेदार यार, मित्र, कुटुम्ब, बिरादरी समाज क्या होता है, आज की युवा पीढ़ी को इस बात का ज्ञान नहीं तो उनका सम्मान करना तो दूर की बात है। आज अगर घर में चार कमरे हैं और एक परिवार के 6 सदस्य हैं तो सभी अपने अपने कमरों में मोबाइल में लगे हुए हैं किसी को अपने धर्म से कुछ नहीं लेना, कोई संस्कार से कुछ नहीं लेना बस कोई नई चीज आए और उसे पोस्ट करो और वायरल करो, अगर कोई घर में फंक्शन है अतिथि संस्कार जरूरी नहीं सिर्फ घर के फंक्शन की फोटो फेसबुक पर डालना जरूरी है। किसी तीरथ पर जाएं, धार्मिक स्थल पर जाएं यहां तक अगर अंतिम संस्कार हो रहा है, गंगा में अस्थियों में प्रवाह हो रहा है तो सबसे पहले फेसबुक पर फोटो डाली जाती है जबकि धार्मिक रीति रिवाज में श्ररधा नाम की कोई चीज नहीं रह गई अब तो बच्चों में एक नई मानसिकता मिलने लग गई है यदि बच्चों को मां बाप किसी के सामने डांट दें या थप्पड़ मार दें तो बच्चे आफत उठा देते हैं घर छोड़ जाते हैं ये संस्कृति कहां से सीखी जा रही है। कौन इस संस्कृति की नींव रख रहा है क्यों रिश्ते खत्म होते जा रहे हैं, क्यों खून पानी बनते जा रहे हैं, क्यों छोटे बड़े की इज्जत नहीं कर पा रहे इन सब बातों पर चिंतन की जरूरत है। यह बात समझ लेनी चाहिए कि वो पत्थर कभी मूर्ति नहीं बन सकता जो छैनी व थोड़ी की चोट से डरे। कैसे हम अपनी संस्कृति को बचाएं, कैसे अपने बच्चों में संस्कार पैदा करें, कैसे बच्चों में मां बाप का सम्मान बहाल हो। जब बच्चे अपने पैरों पर खड़े हो जाते हैं तो वही बच्चे अपने मां बाप को आंख दिखाते हैं कि जो आपने हमारे लिए किया वो हमारी ड्यूटी थी। लेकिन बच्चा यह भूल गया कि किस तरह मां ने 9 महीने कोख में रखकर उसकी परवरिश की और फिर उसे ठंड में सूखे में सुलाया खुद गीले में सोई। और पिता ने पता नहीं किन परिस्थितियों में मेहनत मजदूरी करके, दिन रात एक करके बच्चे को पढ़ा लिखाकर बड़ा किया उसके पैरों पर खड़ा किया और वही बच्चा कहता है आपने मेरे लिए क्या किया जो किया वो आपकी ड्यूटी थी। पहले के समय में घर में बुजुर्ग अपने बच्चों को डांट भी देते थे मार भी लेते थे लेकिन बच्चा अपने माता पिता के आगे नहीं बोला क्योंकि वही माता उस बच्चे के पथ प्रदशक होते थे वो मार वो डांट ही बच्चे में संस्कार पैदा करती थी समाज में कैसे चलना है, समाज को कैसे जोड़कर चलना है, कुटुम्ब में कैसे रहना है, कुटुम्ब को कैसे जोड़कर चलना है ये तमाम चीजें माता पिता की डांट फटकार मार सिखाती थी। जो अब संस्कार शिक्षा लुप्त हो गए हैं बच्चे अपने मोबाइल पर अच्छे संस्कारों वाली एप्लीकेशन नहीं खोलते बल्कि बच्चे वो एप्लीकेशन खोलते हैं जिनमें संस्कार नाम का शब्द नहीं होता इसके लिए खाली बच्चे ही जिम्मेवार नहीं मां बाप भी जिम्मेवार हैं, घर के बड़े भी जिम्मेवार हैं जो बच्चों को जन्म देने तक की ड्यूटी मानते हैं संस्कार जाएं भाड़ में। इसलिए समाज को बच्चों को बचाने के लिए चिंतन म मनन की जरूरत है।

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