पहले लोग इंसान की जुबान पर विश्वास करते थे लेकिन अब जुबान तो क्या इंसान पर भी विश्वास खत्म होता जा रहा है। गुलजार साहब ने बहुत अच्छा लिखा ‘‘लोगों ने समझाया की वक्त बदलता है और वक्त ने समझाया लोग भी बदलते हैं’’। जरा सी बुलंदी, जरा सी पहचान, जरा सी शोहरत, जरा सा नाम, जरा सा रूतबा मिल जाए तो लोग आदमी को आदमी समझना बंद कर देते हैं ऐसे लोगों के लिए ही बहुत सुंदर लाइनें शायर ने लिखी ‘‘ मेरे ही तराशे हुए पत्थर आज मंदिर में भगवान बने बैठे हैं कल जिनको कोई पूछता न था और हम पूछते थे आज वही हमें देखकर अनदेखा कर रहे हैं’’ ऐसा पैसे और शोहरत में क्या चीज है या फिर इन दोनों चीजों को अभिशाप मिला हुआ है कि जिनको यह दोनों चीजें मिल जाएंगी उनकी इंसानियत मर जाएगी। इस संपादकीय के माध्यम से मैं एक कड़वी सच्चाई लिख रहा हूं। 1990 में मैंने इस अखबार के संपादक के रूप में काम शुरू किया था और अंबाला में आज जो अपने आप को अंबाला के पावे बताते हैं खूंटे बताते हैं और यह दावा करते हैं जहां हम खड़े हो जाए वहीं से लाइन शुरू होती है और ऐेसे लोग जिनके पास कल कुछ भी नहीं था अर्थात कोड़ी थे और आज करोड़ी बनकर उनका अहंकार सातवें आसमान पर है। मैं ऐसा नहीं कहता कि अमीर होना अभिशाप है, मैं ऐसा भी नहीं कहता शोहरत मिलना गलत बात है मैं यह भी नहीं कहता आप आसमान को न छुओ लेकिन बुलंदिया मिलने के बाद अगर आपका एक पांव आसमान पर है तो दूसरा पांव हर हालत में जमीन पर रखना चाहिए ठीक इन लाइनों की तरह ‘‘चंगे चाहे माड़े हालात विच रखी सानू साडे मालका औकात विच रखीं’’ अगर मालिक ने आपको जमीन से आसमान की बुलंदी दी तो आप अपने आरे प्यारे साथियों अपने कमजोर साथियों, अपने पुराने साथियों को कभी न छोड़ना क्योंकि उस बुलंदी में उनका भी योगदान होता है और इसीलिए यह कहा गया झुके हुए वृक्ष ही छायादार व फलदार होते हैं।